पेशे से दर्ज़ी, श्रीनगर के एक गाँव में रहने वाले मोहम्मद सुल्तान की ज़िंदगी चुनौतियों से भरी थी। ‘मस्क्युलर डिस्ट्रॉफ़ी’ से पीड़ित बेटे के साथ ज़िंदगी गुज़ारना किसी जंग से कम नहीं था। लेकिन उनकी मुश्किलें कम होने के बजाय बढ़ती गईं; क्योंकि उसके बाद उनके दो और बेटे भी इसी बीमारी के साथ पैदा हुए, एक ऐसी बीमारी जिसमें वक़्त के साथ मांसपेशियां बिल्कुल कमज़ोर हो जाती हैं। तीन बीमार बेटों को कैसे पालेंगे? ये फ़िक्र उन्हें खाए जाती थी।
लेकिन आज, 70 साल के सुल्तान सभी दुविधाओं को पीछे छोड़ चुके हैं। उनके सबसे छोटे बेटे तारिक़ अहमद मीर ने अपने बलबूते कश्मीरी परंपरा की ख़ास ‘सोज़नी कढ़ाई’ को आगे बढ़ाकर नाम कमाया है। अपने काम के लिए पुरस्कार जीत चुके तारिक़ ने 2010 में ‘स्पेशल हैंड्स ऑफ़ कश्मीर’ नाम का एक ग्रुप बनाया। इस ग्रुप में उन्होने इस ख़ास कढ़ाई के ज़रिए पैसे कमाने शुरू किया। वो कहते हैं, “मैं अपनी तरह शारीरिक चुनौतियों से जूझने वाले दूसरे कारीगरों को मौक़ा देना चाहता हूँ।” फ़िलहाल ‘स्पेशल हैंड्स ऑफ़ कश्मीर’ में 40 कारीगर शामिल हैं, जिनमें 15 लोग किसी न किसी तरह की शारीरिक चुनौती से जूझ रहे हैं।
लेकिन तारिक़ आज जहाँं हैं, वहाँ तक पहुँचना इतना आसान भी नहीं था। पढ़ाई का दौर भी उनके लिए संघर्ष से भरा था। उनको अब भी याद है कि अपनी बीमारी की वजह से, घर से अपने प्राइमरी स्कूल तक जाना भी उनके लिए कितना मुश्किलों भरा हुआ करता था। बड़े होने पर बडगाम के अपने स्कूल तक पहुँचने के लिए बस पकड़ना भी उनके लिए कितनी बड़ी चुनौती हुआ करती थी। वो फ़ार्मा की पढ़ाई करना चाहते थे, लेकिन उसके लिए 20 किलोमीटर का बस का लम्बा सफ़र तय करना आसान नहीं होता, इसलिए तारिक़ ने आर्ट फ़ील्ड को चुना। श्रीनगर में एक साल कॉलेज जाने के बाद, उन्होंने डिस्टेंस एजुकेशन से अपनी पढ़ाई पूरी की और फिर कश्मीर यूनिवर्सिटी से उर्दू में पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा किया। वो टीचर बनना चाहते थे, लेकिन अपनी डिसेबिलिटी की वजह से उन्हें कहीं भी नौकरी नहीं मिली। वो ख़ाली वक़्त में अपने पसंदीदा शायर मिर्ज़ा ग़ालिब और अल्लामा इक़बाल के शेर पढ़ा करते थे, जिनके अल्फ़ाज़ उनके दिल में उतर जाते थे।
बचपन में तारिक़ ने अपने पिता को पशमीना शॉल की कढ़ाई करते देखा था। वो सर्दियों की छुट्टियों में इस काम में उनका थी। तभी उन्होंने पढ़ाई के बाद इस पेशे को अपनाने का फ़ैसला लिया। लेकिन इसमें मौजूद बिचौलिये उनके काम के सही पैसे नहीं देते थे, जो तारिक़ को काफ़ी निराश करता था। इसी वजह से उन्होंने अपना काम करने का अंदाज़, या यूँ कहिए कि अपना ‘बिज़नेस मॉडल’ बदल डाला। एक स्कॉलरशिप के तहत उन्हें 10 हज़ार रुपये मिले थे। जिससे उन्होंने एक स्मार्टफ़ोन ख़रीद लिया। हालांकि इसके लिए उन्हें अपने माता-पिता की डांट भी झेलनी पड़ी, “इतने पैसों में तो एक साल घर चल जाता”। लेकिन तारिक़ को अपने फ़ैसले पर भरोसा था। उन्होंने स्मार्टफ़ोन से फ़ेसबुक पर अपनी कढ़ाई की हुई सोज़नी शॉल की तस्वीरें डालनी शुरू कर दीं। बहुत जल्द वो कई संगठनों से जुड़ गए। उनके ‘स्पेशल हैंड्स ऑफ़ कश्मीर’ ग्रुप ने कई प्रदर्शनियों में हिस्सा लिया। इसके बाद तो उन पर फ़ेलोशिप की बरसात हो गई और अपनी कला के दम पर उन्होंने देशभर में पहचान हासिल की।
तारिक़ के भाई नज़ीर अहमद 2019 में दुनिया को अलविदा कह गए। उनके भाई फ़ारूक़ अहमद, 90 प्रतिशत डिसेबल्ड हैं, लेकिन इसके बावजूद वो उनके काम का हिसाब रखने में उनकी मदद करते हैं। तारिक़ सुबह 9 बजे से रात 9 बजे तक सिर्फ़ एक-एक घंटे के दो ब्रेक के साथ काम करते हैं। उनका यही जज़्बा इस बात का यक़ीन दिलाता है कि वो ज़िंदगी में बहुत कुछ हासिल करेंगे। तभी तो उनके वॉट्सऐप स्टेटस पर इक़बाल के शेर की एक लाइन लिखी है- ‘सितारों के आगे जहां और भी हैं’। शायद ये शब्द उन्हें अभी भी बहुत कुछ पाने के लिए प्रेरित करते हैं।