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"बस अच्छाई करते चलो, आपके साथ ख़ुद ब ख़ुद अच्छा होता रहेगा"

जिलिंग के रहने वाले 65 साल के सुरेन मुर्मू के बेटे बांका मुर्मू एक प्राइमरी स्कूल चलाते हैं। ये स्कूल उनके पूर्वजों सिद्धो मुर्मू और कान्हू मुर्मू से प्रेरित है, जिन्होंने 1850 के दशक में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ ऐतिहासिक संथाल विद्रोह का नेतृत्व किया था। इस स्कूल में संथाली, बंगाली और अंग्रेज़ी भाषाएं पढ़ाई जाती हैं। सुरेन मुर्मू चारपाइयाँ बनाते हैं, लेकिन उनकी चारपाइयाँ उनके बेटे के स्कूल में भाषाओं की क्लास का एक दिलचस्प हिस्सा बन सकती हैं, क्योंकि छात्रों को ये बात हैरान कर सकती है कि लकड़ी के फ़्रेम पर रस्सी से बुनी खाट के लिए जो भारतीय शब्द हैं, 'चारपॉय या चारपाई' वो अंग्रेज़ी शब्दकोश का हिस्सा हैं। और अंग्रेज़ी शब्द ‘कॉट’ (cot) दरअसल भारतीय शब्द ‘खाट’ से बना है।

लगभग 1,000 की आबादी वाला जिलिंग, पश्चिम बंगाल के पुरुलिया ज़िले में बागमुंडी तहसील की अजोध्या पहाड़ियों में स्थित है। बांका ने बताया, "मेरे पिता ने मुझे स्कूल शुरू करने के लिए प्रोत्साहित किया, क्योंकि उनका मानना है कि बुनियादी शिक्षा के साथ भी आदिवासी बच्चे जीवन में बहुत आगे बढ़ सकते हैं।" स्कूल का नाम सांथाल जनजाति के सर्वोच्च देवता मारंग बुरु और उनकी पत्नी जाहर आयो के नाम पर रखा गया है। अगर आप एक शहरी नागरिक हैं तो आप सोच रहे होंने कि ये कोई ईंट-पत्थर से बनी एक इमारत होगी जिसपर एक बड़े से साइनबोर्ड पर स्कूल का नाम लिखा होगा। लेकिन आप ग़लत हैं। स्कूल के नाम पर वहाँ सिर्फ़ घास के छप्पर की छत है जो लकड़ी के खंभों के सहारे खड़ी है। स्कूल में कोई दीवार नहीं है और छप्पर के नीचे 130 बच्चों को एक साथ बैठाया जाता है। बच्चों के बीच रखे ब्लैकबोर्ड स्कूल को अलग-अलग क्लास में विभाजित करते हैं।

सुरेन, जो सिर्फ़ संथाली बोलते हैं, जिलिंग में पले-बढ़े हैं। वो पढ़ाई में दिलचस्पी रखते थे लेकिन जिलिंग में केवल एक प्राथमिक विद्यालय था इसलिए वो कक्षा तीन से आगे नहीं बढ़ सके। उनकी पत्नी (जो अब नहीं रहीं), उसी तहसील के सरमचकी से आई थीं। उन्होंने भी कुछ ही वर्षों की स्कूली शिक्षा हासिल की, क्योंकि उनकी माँ की समय से पहले मृत्यु हो जाने के बाद उन्हें परिवार की देखभाल करनी थी। उनकी बेटी श्राबानी (21) ने कक्षा चार तक पढ़ाई की और फिर घर में अपनी मां की मदद करने और परिवार के खेत में काम करने लगी। बांका, परिवार का सबसे ज़्यादा पढ़ा लिखा सदस्य, BA के तीसरे वर्ष में था और संथाली में ‘ऑनर्स’ का एक कोर्स कर रहा था, जब पिता सुरेन के साथ एक दुर्घटना हो गई और बांका को अपनी पढ़ाई वहीं छोड़नी पड़ी।

सुरेन ख़ुद एक किसान थे और खाट बनाना उनके लिए सिर्फ़ एक साइड बिज़नेस हुआ करता था। उनका परिवार खेत में काम करता है- चावल, मक्का और सरसों उगाता है। लगभग ढाई साल पहले, सुरेन अपनी गायों को चराने के लिए जंगल में गए थे, जहाँ वो एक चट्टान पर फिसल गए और बुरी तरह घायल हो गए। उनके पैरों में गम्भीर चोटें आईं, लेकिन उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि किसी अच्छे अस्पताल में अपने पैरों का इलाज करवा सकते, इसलिए अब वो घर पर लकड़ी की बनी बैसाखी के सहारे चलते हैं।

 बांका ने बताया, "चूंकि मेरे पिता पहले की तरह खेत में मेहनत नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्होंने वो छोड़कर खाट बनाने का काम पूरी तरह सम्भाल लिया।" इतना ही नहीं उन्होंने अपने बेटे के लिए लड़की भी ढूँढी। आज बांका और उसकी पत्नी मालोती का आठ महीने का एक बेटा है, फुरगल। मालोती, जो 12वीं पास है अपने पति बांका का स्कूल चलाने में उसकी मदद करती है, जहाँ बांका और गाँव के एक और शिक्षक क्लास संचालित करते हैं।

वहीं पिता सुरेन जल्दी उठते हैं, खेत का जायज़ा लेते हैं, परिवार के सदस्यों को काम बांटते हैं, और फिर चारपाइयाँ बनाने में लग जाते हैं। पुरुलिया ज़िले के एक हाट (किसान बाज़ार) में ये चारपाइयाँ और उनके खेत का उत्पाद बेचा जाता है। सुरेन ग्राम पंचायत में सक्रिय हैं और खेती और खाट बनाने के अपने हुनर को साझा करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। बांका कहते हैं, "हमारे स्कूल की वजह से मेरे पिता का नाम जिलिंग और आसपास के गांवों में जाना जाता है।"

तस्वीरें:

विक्की रॉय