मेहर जान चौधरी (41) सुबह 10 बजे अपने घर से बाहर निकलती हैं, उनका दिल घबराया होता है। उन्होंने अपनी बौद्धिक रूप से विकलांग बेटी सुहाना बेगम (14 वर्ष) को बंद कर रखा है और केवल दोपहर में उसे नहलाने और खाना खिलाने के बाद ही उन्हें राहत मिलती है। “कभी-कभी मुझे अपराधबोध होता है, लेकिन मैं और क्या कर सकती हूँ?” मेहर कहती हैं। “मेरी बेटी किशोरावस्था में है और बाहर की दुनिया असुरक्षित होती जा रही है।”
मेहर असम के कछार जिले के कुछ हज़ारों की आबादी वाले गोरा ग्राम में रहती हैं। वे एक घरेलू कामगार हैं जो दो घरों में काम करती हैं - एक सुबह और दूसरा दोपहर के भोजन के बाद, जिसके बाद वे लगभग 4.30 बजे घर वापस आती हैं। उन्होंने सुहाना को अपने साथ काम पर ले जाने की कोशिश की है, लेकिन जहाँ वे काम करती हैं वे लोग सुहाना के अनियंत्रित व्यवहार पर आपत्ति जताते हैं। अगर उनका बेटा सहरुल आलम (16) आसपास होता है तो उन्हें कोई चिंता नहीं होती, लेकिन वो भी दिहाड़ी पर काम मिलने पर बाहर चला जाता है।
मेहर ने पिछले 14 सालों से अपने दो बच्चों को अकेले ही पाला है, जब सुहाना की उम्र सिर्फ़ डेढ़ महीने थी उनके पति ने उन्हें छोड़ दिया था। पहले वो रोज़ाना मज़दूरी करके अपनी मासिक कमाई (जो अधिकतम 700 रुपये थी) बढ़ाने की कोशिश करती थीं। लेकिन उन्हें बहुत दूर जाना पड़ता था, जो दो घरों में काम करने और बच्चों की देखभाल के साथ नामुमकिन था। सहरुल को आठवीं कक्षा के बाद स्कूल छोड़ना पड़ा क्योंकि मेहर उसे आगे पढ़ाने में असमर्थ थीं। उसने अपने मामा से राजमिस्त्री का काम सीखा और अगर उसे काम मिल जाता है - जो शायद महीने में एक बार मिल पाता है - तो वो दैनिक मज़दूरी पर 250-300 रुपये कमा लेता है।
सुहाना की विकलांगता के बारे में तीन साल की उम्र में ही पता चला। मेहर का कहना है कि एक स्थानीय डॉक्टर ने "दिमाग की समस्या" की पहचान की थी जो शायद गर्भावस्था के दौरान शुरू हुई थी और जिसके लिए लंबे समय तक दवा की आवश्यकता होगी (उसे मिर्गी के दौरे पड़ने की संभावना है)। मेहर के पास सात महीने से ज़्यादा समय तक ये दवाइयाँ खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। उन्होंने सुहाना को गाँव के प्राइमरी स्कूल में भर्ती कराया लेकिन उसे दूसरे विद्यार्थियों से बदमाशी और शारीरिक दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा और स्कूल ने उन्हें सलाह दी कि वो अपनी बेटी को हफ़्ते में एक बार उपस्थिति दर्ज कराने के लिए लायें। सुहाना को ध्यान केंद्रित करने और सीखने में कठिनाई हुई और किसी तरह वो छठी क्लास तक पहुँच पाई।
मेहर कहती हैं, "देखभाल के लिए बहुत धीरज और दृढ़ता की ज़रूरत होती है।" "हर किसी के अपने बच्चों के लिए सपने होते हैं। कुछ बच्चे पढ़ाई में अच्छे होते हैं, कुछ खेलकूद में अच्छा करते हैं। मुझे पता है कि मेरा बच्चा उनके जैसा नहीं है।" सुहाना बहुत ज़्यादा उत्साहित रहती है और अक्सर लोगों पर हाथ उठा लेती है, इसीलिए पड़ोस के बच्चे और बड़े उससे दूर रहते हैं। सहरुल और मेहर बारी-बारी से उसे खाना खिलाते हैं। वह, खासकर जब उससे पूछा जाता है, तो केवल एक-एक शब्द या अधूरे-अधूरे वाक्य बोलती है, और उसकी बात समझ में नहीं आती। मेहर उसे कपड़े और बर्तन धोने और फर्श पोंछने जैसे बुनियादी काम सिखाने की कोशिश करती हैं।
सुहाना अपने चाचा के घर जाने के लिए उत्सुक रहती है क्योंकि "वहाँ हर कोई उससे प्यार करता है"। उसे पोखर – तालाब वगैरह बहुत पसंद हैं और पानी से खेलना उसे बहुत मज़ा आता है। सहरुल कभी-कभी उसे तालाब पर ले जाता है और मेहर उसे नहाने के लिए वहाँ ले जाती है लेकिन "हमें सावधान रहना पड़ता है क्योंकि उसे अचानक दौरे पड़ सकते हैं"। सुहाना को शांत रखने के लिए वे उसे पानी का एक बड़ा बर्तन देती हैं और उसमें अपनी उंगलियों से आकृतियाँ बनाती हैं, जिसकी सुहाना नकल करती है। उसे बाहर जाना पसंद है और जब वो किसी दुकान में जाती है तो भी शांत रहती है!
सहरुल एक ऐसा बड़ा भाई है जिससे ज़्यादा सहयोगी भाई की कोई कामना नहीं कर सकता। वे कहते हैं, "मैं उससे बहुत प्यार करता हूँ। जब लोग उसे 'पागल' कहते हैं, तो मुझे बहुत दुख होता है।" वे उन बच्चों को डांटते हैं, जो उसे परेशान करने की कोशिश करते हैं। "काश मैं उसके साथ खेल खेल पाता, लेकिन वो दिलचस्पी नहीं दिखाती। मैं उसे शांत करने के लिए कभी-कभी अपने फ़ोन पर संगीत बजाता हूँ, लेकिन 10 मिनट के बाद उसका ध्यान भटक जाता है और वो मुझे मारना शुरू कर देती है।"
मेहर कहती हैं कि कभी-कभी उन्हें निराशा होती है, लेकिन वे हमेशा यही सोचती रहती हैं कि अपनी बेटी को बेहतर भविष्य कैसे दे सकती हैं। उनका सपना है कि वो अपनी खुद की एक दुकान खोलें, जहाँ सुहाना उनकी मदद कर सके और कोई अर्थपूर्ण काम कर सके। सहरुल कहते हैं, "मेरी माँ और मेरी बहन ही मेरी दुनिया हैं। मैंने बचपन से ही अपनी माँ के संघर्ष को देखा है, इसलिए मैं जल्द से जल्द एक स्थायी नौकरी हासिल करके उनकी मदद करना चाहता हूँ।" क्या वो आगे पढ़ना नहीं चाहते? वो थोड़े निराश से कहते हैं, "अगर मुझे मौका मिले तो मैं अपनी पढ़ाई जारी रखकर बहुत खुश होऊंगा। लेकिन अब मेरे पास अपने सपने नहीं हैं। मैं बस अपनी माँ और बहन को खुश देखना चाहता हूँ।" वो भावुक होते हुए कहते हैं, "एक दिन मैं अपनी बहन का जन्मदिन मनाना चाहता हूँ और लोगों को बुलाकर उन्हें अच्छा खाना खिलाना चाहता हूँ। उम्मीद है कि वो दिन जल्दी आएगा जब मेरी नियमित आमदनी होने लगेगी।"