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"आप जो कर सकते हो करो लेकिन अभी करो। ठहराव से बुरा कुछ नहीं"

हर सुबह जब सौमिता (39) उठती हैं तो उन्हें यह पता नहीं होता है कि वो अपने शरीर का कौन सा हिस्सा हिला पायेंगी, कौन सा हिस्सा काम करेगा और कैसे। 11 वर्षों से, कोलकाता की सौमिता बासु को इस स्थिति ने परेशान किया गया है, जिसे अलग-अलग डॉक्टरों द्वारा अलग-अलग नाम दिये गये, जब तक कि आखिर में वे 'ऑटोइम्यून डिसऑर्डर' पर आकर रुके। लेकिन लेबल का कोई मतलब नहीं हैं। यह सिर्फ बीमारी का वर्णन करता है, जबकि सौमिता जीवन की हर चीज़ का पता लगाने के लिये उत्सुक थी। वो कहती हैं, "हर दिन के आखिर में मैं खुद से पूछती हूँ, क्या तुमने इसमें अपना 100 प्रतिशत दिया?" "अगर जवाब 'हाँ' है, तो मैं एक बच्चे की तरह आराम से सोती हूँ।"
 
28 साल की उम्र तक, जब दर्द ने पहली बार अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, सौमिता विकास क्षेत्र में काम कर रही थीं और नीदरलैंड में विकास अध्ययन में एमए करने की तैयारी कर रही थीं। उन्होंने अपना कैरियर एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में शुरू किया और फिर धीरे-धीरे नीति और विकास कार्यक्रम के कार्यान्वयन पर केंद्रित सामाजिक शोध में अपना स्थान खोजने के लिये रास्ता तलाशा। 24 साल की उम्र में, वे यूनिसेफ के साथ काम कर रही थीं, लेकिन गाँवों में काम करने के लिये नौकरी छोड़ दी। उन्होंने भारत के 14 राज्यों में आजीविका और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रोजेक्ट्स शुरू किये, जिससे उन्हें पैसे कम मिले लेकिन उन्हें विभिन्न समुदायों के लोगों के साथ सीधे काम करने का संतोष मिला।
 
हालाँकि, 32 की होने तक, पुराने दर्द ने उन्हें जकड़ लिया था। "मेरे पास अफसोस करने का समय नहीं था। दर्द इतना तेज़ था कि मैंने सब कुछ करना बंद कर दिया था। नौकरी छोड़ी,ज़्यादतर बिस्तर पर थी, कभी-कभी उँगलियाँ भी मुश्किल से उठा पाती थी। मैं बस यही सोचती रहती कि मैं पूरी तरह से कैसे जीऊं?" उन्हें बहुत कुछ फिर से सीखना था। जीवन सबकों की एक श्रृंखला थी, जो ज्ञान का एक शॉर्टकट प्रदान करती थी जिसे वो  सामान्य रूप से सिर्फ़ 60 या उससे अधिक की उम्र तक हासिल कर पाती। धीरे-धीरे करके, उन्होंने दर्द और अक्षमता के साथ जीने के शारीरिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक परिणामों से निपटने के लिये तकनीकें हासिल कीं।
 
सौमिता ने मज़ाकिया अंदाज में कहा, "मैंने लोगों से कहा है कि मेरे कर्म बुरे हैं और भगवान मुझे सज़ा दे रहे हैं। लेकिन जब भगवान ने मुझे वो सब कुछ दिया है जो मुझे इससे निपटने के लिये चाहिये तो मेरी विकलांगता सज़ा कैसे हो सकती है?" उनके परिवार का प्यार और समर्थन ही उन्हें इतनी दूरी तक लाया है। वे केवल उन क्षणों में जुझारू बने रहे, जब वो कमज़ोर महसूस कर रहे थीं, और उन्हें उनकी ताकत की ज़रूरत थी। उनके वफादार दोस्तों ने उन्हें बिना शर्त प्यार दिया है। ऐसे "एन्जल्स" रहे हैं जो ज़रूरत के समय प्रकट हुये और इससे पहले कि वो उन्हें धन्यवाद दे पाती, वो गायब हो गये। 2019 के दौरान, जब उनके दोस्तों ने उनके लंबे समय तक अस्पताल के खर्च के लिये एक क्राउडफंडिंग अभियान शुरू किया, तो पूरी तरह से अजनबियों ने बड़ी उदारता से दान दिया।
 
बेशक, ऐसे पल भी आते हैं जब सौमिता अपने शरीर के काम करने को याद करती हैं। ढाई साल की उम्र से भरतनाट्यम में प्रशिक्षित, वो एक बॉलरूम डांसर भी हैं। अब वो अपने पसंदीदा डांस स्टेप्स नहीं कर सकती हैं। न ही वो दरवाजा पटक सकती हैं और गुस्से में कमरे से बाहर निकल सकती हैं! वो कुशलता से लहसुन काटती थीं – वो खाने की काफी शौकीन हैं, हालाँकि अब वो अपने खाने का ध्यान रखने के लिये बाध्य हैं - लेकिन उनकी उँगलियाँ अब उनकी बात नहीं मानती हैं। वो टच-स्क्रीन लैपटॉप पर लिखती और संपादित करती हैं और उनका स्मार्टफोन उनकी दुनिया का केंद्र है।
 
जब उन्हें इतना प्यार मिला है, तो वो उसे कैसे जमा करके रख सकती हैं? वह हँसते हुये कहती हैं, "जमाखोरी अच्छी नहीं है।" 34 साल की उम्र में, उन्होंने अपने लंबे बाल काट दिये और कैंसर फाउंडेशन को दान कर दिये; उन्होंने इन्हें फिर से दान करने के लिये ही बढ़ाया है। 14 फरवरी, वेलेंटाइन डे पर और अपने जन्मदिन पर, वो विभिन्न सोशल मीडिया समूहों पर एक पोस्ट डालती हैं कि जो कोई भी उनके साथ अपने मुद्दों पर चर्चा करना चाहता है, वो सुनने के लिये उपलब्ध हैं। सोमवार से शुक्रवार तक रात 9:00 वो  ऑनलाइन मेडिटेशन सत्र आयोजित करती हैं।
 
और फिर ज़यनिका, वो कंपनी जो विकलांग व्यक्तियों (पीडब्ल्यूडी) के लिये अनुकूली कपड़े बनाती है, जिसकी उन्होंने अपनी माँ अमिता रॉयचौधरी बासु (60) के साथ सह-स्थापना की थी। वह कहती हैं, "किसी स्वाभाविक चीज़ में अग्रणी होना अजीब लगता है।" लेकिन पारंपरिक कपड़ों के निर्माताओं के लिये - यह सच कि पीडब्ल्यूडी लोगों के पास आदर्श मानव शरीर शायद न हो - यह स्वाभाविक नहीं है। कपड़ों को विशिष्ट आकार की काया वाले लोगों के अनुरूप क्यों नहीं बनाया जा सकता है? उन्हें उन लोगों के लिये क्यों नहीं बनाया जा सकता जो अपने हाथों का इस्तेमाल करने के लिये संघर्ष करते हैं? संवेदी मुद्दों वाले लोगों के लिये जो कपड़े के स्पर्श से रिएक्ट करते हैं?
 
हालाँकि ज़यनिका एक बहुत ही व्यावसायिक पेशकश है, इसके पीछे की मंशा सहानुभूति और समझ के स्थान से उभरती है। किसी ऐसे व्यक्ति से, जिसे प्रचुर प्रेम प्राप्त हुआ हो, और वो उसे आगे देना चाहता है।


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विक्की रॉय