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"जिस दुर्घटना ने मेरे शरीर को कुचल दिया, उसने मेरे उत्साह को मज़बूत किया और मुझे खेलों में बेहतरीन हासिल करने के लिए प्रेरित किया"

शेखर चौरसिया (28) 2010 में अपनी 10वीं कक्षा की परीक्षा कभी नहीं भूल सकते। चूंकि वो अच्छे नबरों से पास हुए थे, इसलिए उनकी माँ ने एक पूजा करने का फैसला किया। शेखर बिहार के रोहतास जिले के गुनसेज गाँव में रहने वाली कमलावती देवी और दीनदयाल चौरसिया की छह संतानों में सबसे बड़े हैं। कमलावती ने राजमार्ग के बगल में अपनी छोटी सी झोपड़ी के ठीक बाहर पूजा का आयोजन किया था।
 
शेखर पूजा देखने में मग्न था, तभी सामान से लदा एक ट्रक सड़क के किनारे पलट गया। ट्रक ने उन्हें मारा, उन्हें  अपने साथ घसीटा और दीवार से कुचल दिया। शेखर याद करते हैं, "मेरे शरीर का हर हिस्सा - मेरी छाती, मेरी बाहें, मेरे पैर - टूटा हुआ महसूस हुआ। दुष्कर चार सालों तक वे बिस्तर पर पड़े रहे, उनका इलाज किया गया और उनका ऑपरेशन किया गया। खेतिहर मज़दूर दीनदयाल (जिन्होंने बाद में पान के पत्ते बेचने का खोखा खोला), सबसे पहले शेखर को एक सरकारी अस्पताल ले गए। वहाँ डॉक्टरों को डर था कि उनके अंग गल जाएंगे और उन्हें काटना पड़ेगा। फिर दीनदयाल ने प्राइवेट चिकित्सा देखभाल के लिए परिवार के सदस्यों और दोस्तों से धन मांगा; चूंकि शेखर एक लोकप्रिय लड़का था, खेल और पढ़ाई में अच्छा था, इसलिए लोग दान देने के लिए तैयार थे। उनका इलाज चेन्नई सहित प्राइवेट अस्पतालों में किया गया, लेकिन पटना में डॉ. राजीव रंजन ही थे, जिन्हें शेखर अपने ठीक होने का पूरा श्रेय देते हैं। एक समय डॉ. रंजन ने उनका निःशुल्क इलाज किया। वो याद करते हैं कि कैसे उनके अंगों को सचमुच उनके शरीर के अन्य हिस्सों से मांस लेकर चिपका दिया गया था।
 
परिवार की तंग आर्थिक स्थिति के कारण शेखर के भाइयों को अपनी स्कूल की पढ़ाई बंद करनी पड़ी; सोनू (23) सूरत में काम करते हैं और अजीत (20) रायपुर में साड़ी की दुकान में कर्मचारी हैं। छोटी बहनें सोनी, पूजा और खुशबू गुनसेज स्थित स्कूल में पढ़ती हैं। 2015 में शेखर ने 12वीं कक्षा की परीक्षा पास की और बाद में उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी के साथ-साथ भौतिकी, रसायन विज्ञान और गणित को अपने विषयों के रूप में चुनते हुए ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की।
 
शेखर कहते हैं, ''मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं फिर से चल पाऊंगा,'' शेखर अपने ठीक होने से इतने प्रेरित हुए कि उन्हें खेलों में आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली। वे अपने स्कूली दिनों में क्रिकेट खेला करते थे लेकिन उन्हें पता था कि अब यह कोई व्यवहारिक विकल्प नहीं है। उन्होंने 400, 800 और 1500 मीटर दौड़ में हिस्सा लिया और 18 साल की उम्र में उन्हें नेशनल पैरा एथलेटिक्स चैंपियनशिप के लिए चुना गया। उनके कोच संदीप कुमार, जो जिम्नास्टिक अकादमी चलाते हैं, ने उन्हें अपने संरक्षण में ले लिया और उन्हें मुफ्त में प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया। विभिन्न राज्यों में आयोजित राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में भाग लेते हुए उन्होंने नौ स्वर्ण, छह रजत और चार कांस्य पदक जीते। उनकी सबसे यादगार स्मृति तब की है जब उन्होंने 2020 में 16वीं राष्ट्रीय पैरा एथलेटिक्स चैंपियनशिप में 800 मीटर और 1500 मीटर दोनों में स्वर्ण पदक जीता था। बिहार सरकार के कला, संस्कृति और युवा विभाग ने उन्हें 2018 से 2022 तक सम्मानित किया।
 
शेखर को अपने घुटनों को मोड़ने में कठिनाई होती है, और उनके पैरों को विशेष आर्थोपेडिक जूतों की ज़रूरत होती है, लेकिन वे अपने खेल को अगले स्तर तक ले जाने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं और कई और पदक जीतने के लिए आश्वस्त हैं। पटना में उन्होंने किराये पर एक कमरा ले रखा है जो साइकिल से अकेडमी से 20 मिनट की दूरी पर है। वे रोज़ाना सुबह 4 बजे उठकर अकादमी में अभ्यास करते हैं और 8.30 बजे तक लौटकर आते हैं। वे नाश्ता और दोपहर का खाना बनाते हैं और शाम को 4 बजे से शाम 6 बजे तक अभ्यास पर वापस जाते हैं। वे महीने में कम से कम दो बार गुनसेज अपने घर जाते हैं और जब उन्हें समय मिलता है तो वे पहाड़ियों की यात्रा करने और हरियाली का आनंद लेते हैं।
 
जिस तरह का कठिन प्रशिक्षण वे करते हैं, उसके लिए पौष्टिक आहार महत्वपूर्ण है, लेकिन वो सस्ता नहीं है, और न ही उसके अनुकूल जूते सस्ते हैं। किराया और अन्य घरेलू खर्च लगभग ₹ 2,500 आता है। उन्हें राज्य सरकार से ₹400 का विकलांगता भत्ता मिलता है और अकादमी में छात्रों को कोचिंग देने से उन्हें थोड़ी कमाई होती है। प्रत्येक पदक से उन्हें एक अच्छा नकद पुरस्कार मिलता है - एक स्वर्ण पदक से उन्हें ₹2 लाख मिलते हैं - लेकिन उनका कहना है कि इस तरह के आयोजन साल में केवल एक बार होते हैं, और उत्कृष्टता हासिल करने के लिए उन्हें वित्तीय सहायता की ज़रूरत है।
 
शेखर अभी भी अपने कैरियर को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं और उनका मानना है कि उनके पास खेलने के लिए कुछ और साल बाकी हैं। हालाँकि, उनके परिवार ने उनके लिए बहुत कुछ किया है और वे उनका ऋण चुकाना चाहते हैं। वह कहते हैं, “मेरे भाइयों को अपनी पढ़ाई छोड़ने के लिए मज़बूर होना पड़ा और उन्होंने कभी शिकायत नहीं की। मेरे माता-पिता ने पैसों की समस्या के बावजूद मेरी मदद करने के लिए हर संभव कोशिश की”। उन्होंने बिहार सरकार की एक योजना के बारे में सुना है जिसके तहत पदक विजेता नौकरी के पाने के हकदार हैं, इसलिए वे अपनी खेल उपलब्धियों के माध्यम से सरकारी नौकरी के लिए कोशिश करेंगे। अपने परिवार के लिए वे कम से कम इतना तो कर ही सकता हैं जो हमेशा से उसकी ताकत और सहारा बना रहा है।.


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विक्की रॉय