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“जब मुझे मदद की ज़रूरत थी, किसी ने परवाह नहीं की। अब जब लोग समझने लगे, तो मुझे उनकी सहायता की ज़रूरत नहीं रही”

हिमाचल प्रदेश के रछियालू गाँव की संतोष कुमारी (40) को अपने पैरों पर खड़ा होने में कई साल लग गये - वाकई। तीन साल की उम्र में एक अंजान बीमारी के बाद वे गंभीर लोकोमोटर विकलांगता से ग्रस्त हो गई, वे  कहती हैं कि उनके माता-पिता राम रानू और लीला देवी ने उनकी उपेक्षा की। चूँकि वे गरीब थे - राम एक खेतिहर मज़दूर थे और लीला को जो भी छोटा-मोटा काम मिलता था, वो  कर लेती थीं - उन्होंने यह जानने के लिये डॉक्टर को दिखाने की कोशिश नहीं की कि संतोष को क्या बीमारी है, और केवल उनके बड़े भाइयों जनम सिंह, करम चंद और उनकी छोटी बहन वंदना देवी पर ही ध्यान दिया।
 
बौनेपन की शिकार संतोष से बात करने पर हमें अपने माता-पिता के प्रति उसकी कड़वाहट का पता चला। वे विशेष रूप से इस बात से नाराज़ हैं कि उन्हें स्कूल भेजने की जहमत नहीं उठाई गयी। जब वो लोग काम करने के लिये बाहर चले जाते थे और उनके भाई-बहन स्कूल चले जाते थे, तो वो अपने एक कमरे के मकान में असहाय पड़ी रह जाती थी जहाँ उन्हें घर के अंदर कैद होने जैसा महसूस होता था। वे  कहती हैं, ''वो मेरी बहन थी जिसने मुझे पढ़ना-लिखना सिखाया।'' जनम ने आठवीं कक्षा और अन्य दो ने दसवीं कक्षा पूरी की। उनकी मिन्नतों और गुस्से भरे आँसुओं के बावजूद, उन्हें कभी भी परिवार के साथ बाहर घूमने नहीं ले जाया गया, क्योंकि "मैं एक बोझ थी जिसे उन्हें उठाना पड़ता"।
 
राम और लीला ने एक नया घर बनाने के लिये कड़ी मेहनत की - एक बगीचे और आंगन के साथ एक बड़ी घर - उनकी झोपड़ी से थोड़ी दूरी पर। जब संतोष 13 वर्ष की थीं तो परिवार वहाँ चला गया। जनम ने उन्हें बैसाखी का उपयोग करने के लिये प्रोत्साहित किया और धीरे-धीरे "यह चमत्कार हुआ": उन्होंने खाना पकाने और बर्तन धोने जैसे घरेलू कामों में अपनी माँ की मदद करना शुरू कर दिया, और घर की चार दीवारी से बाहर निकलने में सक्षम हो गई। हालाँकि, बाहरी दुनिया इतनी स्वागतयोग्य नहीं थी। उनका कोई दोस्त नहीं था, और उनका छोटे कद भद्दी टिप्पणियों का पात्र बन गया। वो याद करती हैं, ''लोग मेरे सामने तो अच्छे से बात करते थे, लेकिन पीठ पीछे मुझ पर हंसते थे।''
 
लीला पड़ोसियों कट पीस लेकर आती थीं और उन कपड़ों को सिलकर थोड़े बहुत पैसे कमाती थीं। एक बार, उन्होंने संतोष को पड़ोस से जाकर कर पीस लाने के लिये कहा। उस महिला ने ताना मारते हुये उनसे कहा, "तुम खुद कपड़ा क्यों नहीं काटते?" जब भी कोई संतोष को तिरस्कारपूर्वक संबोधित करता है या उन्हें चुनौती देता है, तो वह और अधिक दृढ़ हो जाती हैं। वो सिलाई सीखने के लिये पास के एक दर्जी के पास गईं और महज डेढ़ महीने में ही सिलाई मशीन में पारंगत हो गईं। वे कहती हैं, ''मैंने आसपास के परिवारों के लिये सिलाई शुरू की, लेकिन वो लोग पैसे देने में आनाकानी करते थे, इसलिए मैंने काम बंद कर दिया।'' "अब मैं केवल अपने परिवार के लिये कपड़े सिलती हूँ।"

जनम के मुताबिक, ''संतोष के पास अटूट इच्छाशक्ति है। अगर वो कुछ करने का मन बना लेती हैं तो वो उसे पूरा करके ही दम लेती हैं।” उनके अपनी भाभियों के साथ अच्छे रिश्ते हैं। वह कहती हैं, ''वो मेरा सम्मान करती हैं।'' जनम इस बात से दुखी हैं कि संतोष का अपना कोई परिवार नहीं है। उनकी शादी करने की भी कोई योजना नहीं है; उनके भतीजे और भतीजी उनके अपने बच्चे जैसे हैं। जनम (49) के जुड़वां लड़के हैं - स्नातक कंप्यूटर कोर्स कर रहे हैं - और एक बेटी अपनी डिग्री के दूसरे वर्ष में है। करम (44) का आठ साल का बेटा और एक बेटी किंडरगार्डर् में है। जनम की 18 वर्षीय बेटी अनीता कहती है, "मैं अपनी माँ से भी ज्यादा अपनी बुआ के करीब महसूस करती हूँ और उनसे खुलकर बात कर सकती हूँ और कुछ भी माँग सकती हूँ।"
 
संतोष ने 2016 में चिन्मय ग्रामीण विकास संगठन (CORD) के साथ अपना जुड़ाव तब शुरू किया जब उनके एक कर्मचारी की उनसे मुलाकात हुई। वो उनकी बैठकों में भाग लेती हैं और कहती हैं कि उन्होंने उनसे विकलांगता और जीवन कौशल के बारे में बहुत कुछ सीखा है। निःसंदेह, CORD का सामना करने से पहले भी वे बकरियाँ और मुर्गी पालन करके अपनी आजीविका कमाती रही हैं। वह अब संयुक्त परिवार की कमाने वाली मुख्य सदस्य बन गई है! जबकि राम (70) काम नहीं कर रहे हैं, लीला की पाँच साल पहले कैंसर से मृत्यु हो गई, वंदना अपनी ससुराल में रहती हैं, और जनम और करम दिहाड़ी-मज़दूरी करने वाले खेतिहर मज़दूर हैं जिनकी कोई स्थिर आय नहीं है। संतोष अंडे, मुर्गियाँ और मेमने बेचती हैं। उनके पास वर्तमान में 25 मुर्गियाँ और सात बकरियाँ हैं, और वे किसी और को उनकी देखभाल नहीं करने देती हैं।  वे  कहती हैं, ''हमें केवल भगवान से मदद मांगनी चाहिये, किसी और से नहीं।'' "और फिर हमें अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिये कड़ी मेहनत करनी चाहिये।"
 
संतोष का मानना है कि जिंदगी ने उन्हें बहुत कुछ सीखा दिया है। “मैं हर किसी का ख्याल रखती हूँ लेकिन बदले में कुछ भी उम्मीद नहीं करती। लेकिन मैं सभी माता-पिता से आग्रह करती हूँ कि वे अपने बच्चों की अच्छी देखभाल करें, चाहे उनकी स्थिति या विकलांगता कुछ भी हो, और उन्हें जितना संभव हो उतना सामान्य जीवन दें। अब उनकी मुख्य इच्छा अपने प्यारे भतीजे और भतीजियों को जीवन में अच्छी तरह से स्थापित होते देखना है। एक बार ऐसा हो जाये तो वह मथुरा और वृन्दावन की यात्रा करना चाहेंगी।


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विक्की रॉय