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"मुझे लगता है जब मैं 'सक्षम' था तब की तुलना में, मैं अब ज़्यादा काम करता हूँ"

एक तारीख है: 11 जुलाई 2006, जो मुंबई से महेंद्र विलास पिटाले (49) के जीवन में 'पहले' और 'बाद' का प्रतीक है। वो उन सैकड़ों लोगों में से थे, जिनकी जिंदगी '7/11 ट्रेन विस्फोट' से हिल गई थी, जिसे मीडिया ने मेट्रो के उपनगरीय रेलवे पर विस्फोट किये गये बमों की श्रृंखला कहा था।

विले पार्ले में आर्किटेक्चरल ग्लास एंड फर्नीचर कंपनी मोरबीवालास के कर्मचारी महेंद्र रोज़ाना शाम 7.30 बजे ऑफिस से निकलते थे। उनके सभी दोस्त जानते थे कि अगर वो चाय और सैंडविच के लिये महेन (जिस नामे से वो उन्हें बुलाते हैं) से मिलना चाहते हैं तो उनसे 7.30 बजे के बाद ही मिलना होगा। 11 जुलाई को उनके बॉस ने उन्हें ऑफ़िस के लिये कुछ ज़रूरी सामान लेने के लिये कहा। महेन ने कहा, 7.30 बजे के बाद जब तक मैं दुकान पर पहुँचूँगा, दुकान बंद हो जायेगी। अभी शाम के 6 बजे हैं। उनके बॉस ने कहा, तो तुरंत चले जाओ।  

और इस तरह जब एक बम फटा महेन जोगेश्वरी में रेलवे प्लेटफॉर्म पर थे। वे हवा में उड़ गये थे। उनका पहला ख़्याल था, "ये मेरे साथ क्यों हो रहा है?" उन्हें याद है कि पाँच मिनट के बाद खड़े होकर उन्होंने अपने चारों ओर बिखरी लाशों को देखा। उन्होंने सोचा, "मैंने सिर्फ़ अपना हाथ खोया है।" उन्होंने अपना मोबाइल चेक किया और अपने चाचा और अपने पड़ोसी को फोन किया। उनके बाएं हाथ से बहुत ज़्यादा खून बह रहा था तो उन्हें बीएसएस अस्पताल ले जाया गया। जब टीवी चैनलों ने उनका नाम पूछा तब कहीं जाकर उनके रिश्तेदारों को पता चल कि वो कहाँ पर हैं।
 
अगले दिन उनका हाथ काट दिया गया। वो याद करते हैं, “मेरे सीने में जकड़न थी। दो दिनों तक मुझे विस्फोट के विस्फोटकों की गंध आती रही”। चूंकि स्किन ग्राफ्टिंग (शरीर के किसी दूसरे हिस्से से खाल निकालकर लगाना) में ठीक होने में लंबा समय लगता है, इसलिये उन्हें एक महीने के बाद छुट्टी दी गई, जिसके बाद उन्होंने दो महीने तक घर पर आराम किया। और फिर वे काम पर वापस आ गये, उसी ट्रेन से ऑफ़िस गये और अपने परिचित सह-यात्रियों की जिज्ञासा को आकर्षित किया! उनका रवैया था: "ज़ाला ते ज़ाला" (मराठी में, "जो हो गया सो हो गया")।

 महेन का जन्म और पालन-पोषण बोरीवली के गोविंदनगर में हुआ था। असल में वो अब केवल अस्थायी रूप से दहिसर में रहते हैं, तब तक के लिए ज़ब तक कि वो अपने बोरीवली वाली बिल्डिंग में वापस नहीं चले जाते, जिसे फिर से बनाया जा रहा है। उनके पिता विलास पिटाले, जिनकी मृत्यु 2015 में हुयी थी, भारतीय रेलवे में एक डीजल मैकेनिक थे और उनकी माँ वैशाली, जिनकी मृत्यु 2019 में हुयी, फार्मास्यूटिकल्स में काम करती थीं। गोविंदनगर में उनका मराठी माध्यम का स्कू_विद्या विकास सभा_ उनकी बिल्डिंग से सटे हुये परिसर में था। वो अक्सर यह दिखावा करते थे कि वो अपना होमवर्क लाना भूल गये हैं, फिर भागकर घर जाते, पड़ोसी से चाबी लेते, जल्दी से काम खत्म करके वापस ले आते। हालाँकि टीचर, उनके ख़राब काम को देखकर समझ जाते थे, और आम तौर उन्हें पकड़ लेते थे! बचपन की यादें: एक रुपये प्रति घंटे के हिसाब से साइकिल किराए पर लेना और कंचे खेलना, दोस्तों के साथ लुका-छिपी और चोर-पुलिस खेलना (जिनके साथ वे अभी भी उनके फेसबुक ग्रुप पर संपर्क में हैं)।
  
महेन एक औसत छात्र थे लेकिन वो ड्राइंग में हमेशा से अच्छे थे। दसवीं कक्षा के बाद उन्होंने एल.एस. रहेजा स्कूल ऑफ फाइन आर्ट्स से कमर्शिअल आर्ट में विशेषज्ञता में पाँच साल बिताने का फैसला किया। एक उभती फील्ड जिसमें वो काम कर सकें, उसकी तलाश में उन्होंने काँच के काम में प्रवेश किया। 1998 में वे दहिसर में ग्लास विजन में शामिल हुये, शुरू से अंत तक काँच के भित्ति चित्र और मूर्तियां डिज़ाइन की और बनाईं। कंपनी ने वर्ष 2000 में शारजाह कोका कोला कप के लिये जो ट्रॉफी स्पॉन्सर की थी, वह पूरी तरह से उनकी ही रचना थी। पिछले साल कंपनी द्वारा स्पॉन्सर किये जाने पर उन्होंने विश्व कप श्रृंखला के दौरान भारतीय टीम से मुलाकात की थी और सचिन तेंदुलकर को काँच का बल्ला भेंट किया था।
 
 2003 में उन्होंने दुबई और मस्कट में दो साल तक काम करते हुये पश्चिम एशिया में बेहतर संभावनाएं तलाशी। उनका पसंदीदा प्रोजेक्ट टोयोटा शोरूम के लिये था, जब उन्होंने फ्यूजन ग्लास के लगभग 400 भागों का उपयोग करते हुये काँच का एक पाँच मंजिला मेहराब बनाया। 2005 में वो फिर से मोरबीवालास के लिये काम करने लगे। उनकी दुर्घटना के बाद कंपनी ने उन्हें मुफ्त में केबल से चलने वाला यांत्रिक (मकैनिकल) हाथ दिया। एक कृत्रिम (आर्टिफ़ीशियल) हाथ जिसकी कीमत 7 लाख रुपये थी, उनकी पहुँच से बाहर था। हालाँकि, 2007 में, पत्रकार रजनीश काकड़े द्वारा उनपर एक न्यूज़ फीचर किये जाने के बाद अन्य मीडिया आउटलेट्स ने वही किया, जिससे उन्होंने आर्टिफ़ीशियल अंग खरीदने के लिये पर्याप्त धन जुटा लिया। इसने उन्हें अपना पेशा जारी रखने और बाहरी गतिविधियों- राइफल-शूटिंग, तीरंदाजी और बाइक-सवारी - में भी भाग लेने में सक्षम बनाया।
 
अधिक स्थिर आय की तलाश में उन्होंने 2008 में सरकारी नौकरी के लिये आवेदन किया। तत्कालीन सांसद किरीट सोमैया और रेल मंत्री के हस्तक्षेप के बाद 2015 में उन्हें भारतीय रेलवे में 'बम विस्फोट पीड़ितों' के कोटे में नौकरी मिल गई। उन्हें ट्रेनों में खलासी के रूप में नियुक्त किया गया था, और जब उन्होंने अपना डिजाइनिंग और कंप्यूटर कौशल दिखाया तो उन्हें 'क्लर्क' तक पहुँच दिया गया, लेकिन पोस्टर और ट्रेन के अंदरूनी हिस्सों को डिज़ाइन करने जैसे कार्य भी दिये गये।

आम तौर पर महेन सप्ताहांत में अपनी रॉयल एनफील्ड (RE) या यामाहा आरएक्स पर सवार रहते हैं और कन्वॉय कंट्रोल क्लब मुंबई की ओर से विकलांगता के बारे में जागरूकता फैलाते हैं। सामाजिक मुद्दों को बढ़ावा देने के लिये वे दूसरे RE उत्साही लोगों के साथ लंबी दूरी की यात्राएँ करते हैं। वे गोवा में वार्षिक RE राइडर मानिया और इंडिया बाइक वीक में भाग लेने से कभी नहीं चूकते।
 
महेन बताते हैं कि हाईटेक प्रोस्थेटिक्स की कीमत 40 लाख रुपये तक है। वे भारतीय डेवलपर्स को उनके उत्पादों का परीक्षण करके उचित मूल्य वाले प्रोस्थेटिक्स का फीडबैक देते हैं। वे विकलांग लोगों के लिये उनकी ज़रूरतों के आधार पर संशोधित व्हीलचेयर और प्रोस्थेटिक्स डिज़ाइन करने में भी मदद करते हैं। वे कहते हैं, "प्रोस्थेटिक्स की कीमतों को कम किया जाना चाहिये ताकि अपंग दूसरों पर निर्भरता कम कर सकें" ।

तस्वीरें:

विक्की रॉय