शारीरिक रूप से अक्षम लोग (PwDs) जब कभी अपनी कहानी सुनाते हैं कि उनकी ये हालत कैसे हुई, तो उनकी ये कहानियाँ अक्सर सुने सुनाए क़िस्सों और यादों में ही रंगी होती है। दिल्ली में पैदा हुईं कविता माथुर (45) बताती हैं कि एक दिन जब वो दो साल की थीं, उनकी माँ उन्हे जल्दी जल्दी में नहला धुला कर नीम के पेड़ के नीचे खेलता छोड़ खेतों पर काम करने चली गईं। चूँकि उनके शरीर को ठीक से पोछा नहीं गया था और वो गीली थीं, ऐसे में उसी रात उन्हे तेज़ बुख़ार आ गया। यही बुख़ार पैरालिसिस और पोलियो की वजह बन गया। हालाँकि विज्ञान इसी को कुछ दूसरी तरह से बताता है- विशेषज्ञों के मुताबिक ये पोलियो वायरस था, जिसकी वजह से उन्हे बुखार आया और बाद में पैरालिसिस का अटैक।
उनका परिवार उन्हे गाँव के वैद्य के पास ले गया। उनकी दवाओं का कुछ असर हुआ और उन्होने फिर से चलना फिरना शुरू कर दिया, हालांकि उनका बायाँ हाथ और दायां पैर अभी भी कमज़ोर था। रीढ़ की हड्डी के मुड़ जाने की वजह से उनकी पीठ पर कूबड़ जैसा दिखने लगा, इससे उनके लिए अपने शरीर का संतुलन बनाना भी मुश्किल हो गया। कविता अपनी माँ को बहुत याद करती हैं, वो कविता के जोड़ों की मसाज किया करती थीं, लेकिन जब वो दूसरी कक्षा में थीं, तभी वो उनको हमेशा के लिए छोड़ कर चली गईं। कविता का परिवार उनके लिए ज़रूरत से ज़्यादा फ़िक्रमंद था। जब वो स्कूल जाती थीं, तब उनकी बड़ी बहन गीता ही उनके बस्ते का बोझ उठाती थी। घरवालों ने उनके स्कूल से रिक्वेस्ट की थी कि उन्हे आख़िरी क्लास ख़त्म होने से 15 मिनट पहले ही निकलने की इजाज़त दे दी जाए, ताकि छुट्टी होने पर हुड़दंग मचाते बच्चे, घर पहुँचने की हड़बड़ी में उन्हे धक्का दे कर नीचे न गिरा दें। कविता के पिता प्रताप सिंह एक बस कंडक्टर थे और अक्सर अपने काम में ही बिज़ी रहते थे, ऐसे में घर पर उनकी बड़ी बहन गीता और दादी हुकुम कौर देवी ही उनका पूरा ध्यान रखती थीं। दादी के निधन के 13 साल बीत जाने के बावजूद कविता आज भी उनकी कमी महसूस करती हैं। उनकी ज़िन्दादिली और परिवार को जोड़कर रखने की कला ही थी जिसकी वजह से चुनौतियों के बावजूद घर में हमेशा हंसी ख़ुशी का माहौल और मिलबाँटकर रहने, खाने की भावना मज़बूत बनी रही।
स्कूल ख़त्म होने के बाद कविता ने सोनीपत के टीका राम पोस्ट ग्रेजुएट गर्ल्स कॉलेज में दाख़िला लिया। उन्होने किसी तरह अपने परिवार को हॉस्टल में रह कर पढ़ाई करने देने के लिए मना लिया। आख़िरकार वो पहली बार घर के सुरक्षित माहौल से बाहर जो निकल रही थीं। उनकी इस नई नवेली आज़ादी ने ही उन्हे प्रोत्साहित (मोटिवेट) किया कि वो कॉलेज के बाद नौकरी कर सकें।
उन्हे एक साल के कॉन्ट्रैक्ट पर सिलाई सिखाने वाले टीचर के तौर पर रखा गया, लेकिन मैनेजमेंट के एक सदस्य ने उनकी शारीरिक स्थिति की वजह से उनकी काबिलियत और क्षमता पर सवाल उठाने शुरू कर दिए, जिसके बाद उनका कॉन्ट्रैक्ट बीच में ही ख़त्म कर दिया गया। बाद में उन्होने अपना ख़र्च निकालने के लिए घर पर ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। उन्हे लोगों को कॉल करके हेल्थ डिस्काउंट कार्ड बेचने की नौकरी भी मिली। हालाँकि जल्दी ही उन्हे समझ में आ गया कि ये नौकरी उनके लायक नहीं है; उन्हे लगने लगा कि वो ग्राहकों को मूर्ख बना रही हैं, क्योंकि वो फोन पर ग्राहकों को जिन सुविधाओं का वादा कर के कार्ड बेचती थीं, असलियत में वो उन्हे कभी नहीं दी जाती थीं। लिहाजा उन्होने वो नौकरी छोड़ दी और सरकारी मदद से चलने वाले इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट को ज्वाइन कर लिया जहाँ वो अभी भी काम कर रही हैं। उनकी क्लास में हर उम्र की लड़कियां आती हैं, जिन्हे सिलाई सिखाने के लिए वो रोज़ाना 13 किलोमीटर बस से आती जाती हैं
कविता की छात्राएं उन्हे ऊर्जा और ताक़त देती हैं। जब उनकी छात्राएं उनके लिए अपने हाथों से कुछ बना कर गिफ़्ट करती हैं, तो उन्हे बहुत अच्छा लगता है। कई बार छात्राएं उनके लिए ड्रेस भी सिल कर लाती हैं। समाज के लिए कुछ सार्थक करने की उनकी चाह ही है, जिसकी वजह से वो नवज्योति इंडिया फ़ाउंडेशन में वॉलंटियर टीचर के तौर पर भी बच्चों को सिलाई सिखाती हैं। इस फ़ाउंडेशन को किरण बेदी ने स्थापित किया था। इस यात्रा में उनके पालतू कुत्ते डॉलर की भी बेहद ख़ास जगह है, डॉलर हमेशा उनके साथ रहता है और उनके लिए अपनों से भी बढ़ कर है।