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"हालाँकि मैं विकलांग हूँ लेकिन मैं घर का एकमात्र पुरुष हूँ, इसलिए मुझे दबाव महसूस होता है"

जगमोहन ठाकुर (39) की यादें दर्दनाक हैं कि कैसे, जब वो बच्चे थे तब स्कूल जाने और वापस आने के लिये वे पाँच किलोमीटर तक लगभग रेंग कर जाते थे, इस अपमानजनक प्रयास में उन्हें चार घंटे लग जाते थे। जब वो मात्र छह महीने के थे तो उन्हें पोलियो हो गया। उनके माता-पिता, खेतिहर मज़दूर, जो छत्तीसगढ़ के दुर्ग से 40 किमी दूर जंजगिरी गाँव में रहते हैं, उन्हें एक स्थानीय वैद्य के पास ले गये, जो पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल करता था जैसे कि हंसिया को गर्म करना और बीमार बच्चे को उससे सेंक लगाना। 

95 प्रतिशत विकलांगता के साथ, जगमोहन, सबसे बड़े थे, उसके बाद एक भाई, अजय और एक बहन, सुनीता है, लेकिन उनको स्कूल में तब भर्ती कराया गया जब वे 10 साल का हो गये। उन्होंने इसे कुछ वर्षों तक सहन किया: सुबह 8 बजे घर छोड़ना और रात 8 बजे वापस लौटना, मवेशियों द्वारा रौंदे जाने से बचना, और केवल एक समय के भोजन पर जीवित रहना। कभी-कभी शिक्षक इतने दयालु होते थे कि उनके लिये खाना लाते थे या अन्य बच्चों को उनके लिये बिस्कुट वगैरह लाने के लिये पैसे दे देते थे। वे कक्षा 2 तक मेहनती थे लेकिन जल्द ही जाना अनियमित हो गया और कक्षा 5 में उन्होंने  पढ़ाई छोड़ दी। 

रास्ते में एक टीवी मरम्मत की दुकान थी और धारावाहिक (सीरियल) देखने का शौक होने के कारण वे वहाँ समय बिताने लगे। दुकानदार उन्हें अंदर बुला लेता था और जगमोहन उसे काम करते हुये देखते थे, उसकी हर गतिविधि पर नजर रखते थे। वो रेडियो का ज़माना था और उन्होंने रेडियो मरम्मत भी सीखी। जल्द ही उन्होंने घर पर सभी प्रकार की मरम्मत का काम करना और टॉर्च बनाना शुरू कर दिया। जब वे लगभग 13 वर्ष के थे, तो लोगों ने उनसे कहा, “तुम बहुत प्रतिभाशाली हो; तुम बिना किसी पढ़ाई के भी बहुत कुछ कर लेते हो।” उनके पड़ोसी ने उन्हें एक घड़ी दी और उनसे यह कहते हुये उसे ठीक करने के लिये कहा कि अगर उन्होंने इसे खराब कर दिया तो भी कोई बात नहीं। जगमोहन ने आसपास पूछा और पता लगा लिया कि घड़ी को पेट्रोल से कैसे साफ किया जाता है। इस सफलता ने उन्हें और अधिक सीखने और स्पीकर जैसी अन्य चीजों की मरम्मत करने के लिये प्रेरित किया, जल्द ही वे कैसेट और सीडी प्लेयर में भी माहिर हो गये।

चूँकि वे अकेले हर जगह नहीं जा सकते थे, इसलिए वे दोस्तों से मरम्मत के लिये सामान खरीदने के लिये कहते थे, लेकिन जब वे अपनी माँ को मरम्मत का पैसा लेने के लिये भेजते थे, तो ग्राहक भुगतान नहीं करते थे। जगमोहन के कौशल से प्रभावित होकर एक दोस्त के भाई ने उन्हें पंचायत से ₹15,000 का ऋण दिलवाया। लेकिन दुर्भाग्यवश, उनके पिता का एक्सीडेंट हो गया और सारा पैसा इलाज में खर्च हो गया। कोई और आम्दानी न होने के कारण, वे कर्ज में डूब गये और उन्हें अपने लेनदारों से छिपना पड़ा। जब उन्हें सरकार से ट्राइसाइकिल मिली तो लोगों ने उनका मजाक उड़ाया और कहा कि भीख मांगना शुरू कर दो। "अगर तुम ट्रेन में और बड़े सार्वजनिक स्थानों पर भीख मांगोगे, तो तुम अच्छा खासा कमा लोगे।" इसी बीच उनके पिता की मृत्यु हो गयी।
 
जगमोहन अपनी सारी समस्याएं अपनी शादीशुदा पड़ोसी पिंकी बाई से साझा करते थे। उन्होंने भागने की अपनी योजना का जिक्र किया और पिंकी ने कहा कि वो भी उनके साथ जायेगी क्योंकि उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं होगा। इसलिए, दोनों युवा, वे 19 वर्ष और वो 18 वर्ष, रायपुर भाग गये। तीन साल बाद, उन्होंने एक सामूहिक विवाह कार्यक्रम में शादी कर ली, जिसमें उन्हें घरेलू सामान मिला, और बाद में (चूंकि वे विकलांग थे) जिला कलेक्टर से ₹50,000 मिले। वे लगभग 15 वर्षों तक चुपचाप बने रहे, और उनके परिवार को लगा कि उनकी मृत्यु हो गई है। जब वे दोबारा उनके संपर्क में आये, तब तक वो तीन बच्चों के पिता बन चुके थे: सरस्वती, लक्ष्मी और धनराज। तब से उनकी माँ बहुरा बाई और बहन सुनीता भुआर्य उनके साथ रह रही हैं।
 
जब उन्हें सरकार से एक इलेक्ट्रिक ट्राइसाइकिल मिली तो चीजें थोड़ी बेहतर हुईं। उन्होंने अपना सामान्य शोध एवं विकास किया और इसकी मरम्मत शुरू कर दी। इस कौशल के कई खरीदार थे और वे प्रति माह लगभग ₹17,000 कमा रहे थे। पिंकी और बच्चे भी मरम्मत का काम सीखने में जुट गये। लेकिन पिछले कुछ सालों से, इंटरनेट ने उनकी कमाई खा ली है क्योंकि अब बहुत सी चीजें हैं जो लोग खुद ही कर सकते हैं। आज यह परिवार कठिन जीवन जी रहा है। पिंकी और किशोर बेटियाँ (सरस्वती 18 वर्ष और लक्ष्मी 17 वर्ष) जिन्हें स्कूल छोड़ने के लिये मज़बूर हो गयी, घरेलू सहायिका के रूप में काम कर रही हैं। 11 साल का बेटा धनराज एक चाचा के पास रहता है। 

परिवार अपने मकान मालिक की दया पर निर्भर है जो मुफ्त में बिजली प्रदान करता है और उसने पिंकी को घरेलू सहायिका के रूप में नियुक्त किया है। जगमोहन, जो अब 39 वर्ष के हैं, उनके लिये यह अभी भी एक लंबा सफर है, जिन्हें विकलांगता पेंशन के रूप में मात्र ₹500 मिलते हैं। सरस्वती कंप्यूटर कोर्स या सिलाई कोर्स करना चाहती है, लेकिन पैसे की तंगी है। जब महिलाएं काम करने के लिये बाहर जाती हैं, तो वे खाना बनाते हैं, लेकिन विकलांग होते हुए भी, वे घर के एकमात्र पुरुष होने का दबाव महसूस करते हैं।


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विक्की रॉय