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“काश मैं चल-फिर पाता और किसी पर निर्भर ना रहता। मेरे माता-पिता की भी यही ख़्वाहिश है”

UDID कार्ड, यानी ‘यूनीक डिसेबिलिटी आइडेंटिफ़िकेशन’ कार्ड को ख़ास तौर पर गाँव-क़स्बों में, सिर्फ़ पेट भरने के जुगाड़ भर का ज़रिया माना जाता है। ये कार्ड दिव्यांग लोगों को मुट्ठी भर मासिक आय और कई तरह की सब्सिडी दिला देता है। इस मासिक आय के नियम भी हर राज्य के लिए अलग हैं। चौंकाने वाली बात ये है कि इस योजना का फ़ायदा उठाने वालों को इस बात से भी कोई मतलब नहीं कि आख़िर उनकी दिव्यांगता है क्या? उनके लिये सिर्फ़ उनके कार्ड पर लिखा एक नम्बर मायने रखता है- वो नम्बर जो ये बताता है कि सरकारी आंकड़ों में वो कितने प्रतिशत विकलांग हैं- क्योंकि ये प्रतिशत जितना ज़्यादा होगा, उनको उतनी ही ज़्यादा सरकारी मदद मिलेगी।

विकलांगता का नाम पता करना या तो लोग भूल जाते हैं, या उसे ज़रूरी ही नहीं समझते। हालांकि अगर सही बीमारी पता चल जाए तो इलाज में आसानी हो सकती है। जैसे कि जिन लोगों को चलने फिरने में दिक़्क़त होती है, उन्हें डॉक्टर ‘लोकोमोटर डिसेबिलिटी’ होने का प्रमाण दे सकते हैं। लेकिन क्या ये किसी जेनेटिक या न्यूरोलॉजिकल बीमारी की वजह से हुआ है? देश के कई हिस्सों में ऐसे सवालों के जवाब आज तक मिले ही नहीं। या यूँ कहिए कि तलाशे ही नहीं गए। ये एक सवाल था जो हमारे मन में ख़ुद तब उठा जब हम ओडिशा के पुरी के बालिपुट गाँव में रहने वाले आसीस बेहेरा से मिले। जोगमाया चैरिटेबल ट्रस्ट के राकेश कुमार प्रधान ने हमें आसीस के परिवार से मिलवाने में मदद की।

45 साल के दिहाड़ी मज़दूर परिचिता बेहेरा और उनकी पत्नी तनुलता ने अपने बेटे के लिए दो साल पहले ही UDID कार्ड बनवाया। कार्ड में ‘लोकोमोटर डिसेबिलिटी’ के सामने ‘75%’ लिखा है। आसीस अपने हाथों का इस्तेमाल कर सकता है, लेकिन उसके लिए चलना नामुमकिन है। इसके अलावा वो और समस्याओं से भी जूझ रहा है, जैसे उसे बोलने में भी दिक़्क़त है। तनुलता ने हमें ये भी बताया कि आसीस को बचपन से ही दौरे पड़ते हैं, जो अक्सर रात में आते हैं। पिछले कुछ दिनों से तो ये दौरे लगभग हर 15 दिन पर पड़ रहे हैं। क्या इसके पीछे ‘सेरेब्रल पल्सी’ वजह है? जिससे लोगों के बोलने और चलने फिरने की क्षमता पर असर पड़ता है ? हम भी सिर्फ़ अनुमान ही लगा सकते हैं क्योंकि हम पेशेवर डॉक्टर नहीं हैं।

इलाज की तलाश में परिचिता और तनुलता आसीस को कई डॉक्टरों के पास ले गए, यहाँ तक कि उसे 75 किलोमीटर दूर कटक के SCB मेडिकल कॉलेज में भी ले जाया गया। तनुलता ने बताया, “डॉक्टरों ने कहा कि इसका इलाज नहीं हो सकता और शायद उसे ज़िन्दगी भर दवाओं के सहारे जीना पड़े।” आसीस को असल में क्या बीमारी है इसका तनुलता को अन्दाज़ा भी नहीं है। हमें पता है कि सेरेब्रल पल्सी का कोई इलाज नहीं है, लेकिन दवाओं से उसके दौरों का काफ़ी हद तक इलाज किया जा सकता है। हालांकि हम सिर्फ़ अंदाज़ ही लगा सकते हैं।

9वीं कक्षा तक पढ़ी हुई आसीस की बहन लाइका की शादी हो चुकी है, वो अब उनसे 50 किलोमीटर दूर ब्रह्मगिरी में रहती है। 10वीं कक्षा में पढ़ रही उसकी दूसरी बहन लीज़ा घर से एक किलोमीटर दूर पंचायत हाई स्कूल जाती है। वो साइकिल से स्कूल जाती है और वो आगे भी पढ़ना चाहती है। आसीस कभी स्कूल नहीं गया। तनुलता ने बताया, “हम रिस्क नहीं लेना चाहते थे क्योंकि उसको कभी भी दौरे पड़ते हैं, और हमें डर था कि ऐसे में उसे स्कूल में ठीक मदद मिल पाएगी या नहीं। लेकिन आसीस का नाम स्कूल में 9वीं क्लास में लिखा हुआ है। उसकी माँ तनुलता ने बताया कि उसके टीचरों ने उसकी मदद की और उसके सहपाठियों ने उसके लिए 8वीं क्लास की परीक्षा भी दी। स्कूल के टीचरों ने तनुलता से उसका नाम स्कूल में लिखे रहने की सलाह दी थी ताकि भविष्य में दिव्यांगों के लिए किसी तरह की सरकारी नौकरी मिलने में उसे आसानी रहे। इसके लिए थोड़ी बहुत पढाई भी मददगार साबित होगी। हम सोच में पड़े हैं कि क्या ये स्कूल आसीस को 10वीं फ़ेल सर्टिफ़िकेट देने का इरादा रखता है ?

इस सबके बीच अगर कोई एक चीज़ है जो आसीस अपने आप कर लेता है तो वो है खाना खाना। उसे वड़ा और चना दाल-प्याज़ से बनी पियाजी बेहद पसन्द है। लेकिन जैसे जैसे आसीस बड़ा हो रहा है, उसका वजन और लम्बाई भी बढ़ रही है। इसी के साथ उसके माता पिता की दिक़्क़तें भी बढ़ रही हैं, क्योंकि उनके लिए उसे उठा कर चलना बेहद मुश्किल होता जा रहा है। तनुलता कहती हैं, “अभी तो हमारे अन्दर ताक़त है, लेकिन जब हम बूढ़े हो जाएंगे, तब हमारे अन्दर वो ताक़त नहीं रह जाएगी”। तनुलता ने बताया, “उसके पैर एक दूसरे में उलझते जा रहे हैं, किसी ने हमें बताया कि ओलटपुर ऑर्थोपेडिक अस्पताल में कमर से बाँधने वाली एक बेल्ट मिलती है, जो उसके पैरों को अलग रखने में मदद करेगी।” परिचिता और तनुलता आसीस को व्हीलचेयर पर घुमाते थे, लेकिन 2019 में ओडिशा में आए फ़ानी तूफ़ान में परिवार के घर के साथ वो व्हीलचेयर भी तहस नहस हो गई।

तनुलता ने बताया, “ पहले हम दूध ख़रीदकर पनीर बनाते थे और बेचते थे, जिससे हमारी कुछ कमाई हो जाती थी, लेकिन अब हमारे पास ये काम करने के लिए लायक पैसे भी नहीं हैं। क्योंकि हमने लाइका की शादी पर काफ़ी ख़र्च कर दिया और आसीस की दवाएं तो महंगी हैं ही" वो कहती हैं, "हम दिहाड़ी मज़दूरी के सहारे ही हैं। लेकिन अगर हमें ज़रा सी मदद मिल जाए तो हम अपना पनीर का कारोबार फिर शुरू कर सकते हैं। हमें अब भी उन दुकानों से फ़ोन आते हैं जिनको हम पनीर सप्लाई करते थे।”


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विक्की रॉय