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"हम नहीं जानते कि हमारे बच्चे हमारी देखभाल करेंगे या हमारे अपने परिवारों की तरह हमें छोड़ देंगे"

आनंद शर्मा की ज्वलंत यादों में से एक असम में चाय के बागानों से घिरा होना है जहाँ उनके माता-पिता काम करते थे। उनका कहना है कि उनके मस्तिष्क में केवल धुंधली तस्वीरें कैद हैं, क्योंकि वह कम दृष्टि के साथ पैदा हुये थे और "गरीबी और पोषण की कमी के कारण" चौथी कक्षा में पहुँचने पर उन्होंने इसे पूरी तरह से खो दिया था। उनकी शिक्षा आगे नहीं बढ़ी। उनके माता-पिता काम की तलाश में रायपुर चले आये और वहीं बस गये।
 
जब हमने इस 43 वर्षीय व्यक्ति से उनके प्रारंभिक वर्षों के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि उनकी तीन बड़ी बहनें और चार छोटे भाई हैं। इनमें से कोई भी उनके संपर्क में नहीं है। वे कहते हैं, ''वे अपना जीवन जी रहे हैं और मेरा मानना है कि वे संपन्न हैं।'' "उनमें से कोई भी मेरा समर्थन करने को तैयार नहीं है।" वे हमें अपने पैतृक परिवार के बारे में केवल इतना बता सके कि उनके पिता की मृत्यु हो गई है, और उनकी माँ, जिनका स्वास्थ्य खराब रहता है, उनके एक भाई के साथ रहती हैं।
 
उनके अनुसार, स्कूल छोड़ने के बाद उन्होंने कुछ खास नहीं किया, बस अपना समय खेलने में बिताया और वे लगभग 23 वर्ष के थे तब तक एक शांत जीवन जीया, जब तक उनकी माँ ने उनसे यह नहीं पूछा, "क्या तुम शादी करना चाहते हो?" उनकी माँ, जो पश्चिम बंगाल के खड़गपुर की रहने वाली थीं, ने उनके लिये दुल्हन की तलाश शुरू कर दी। वे 25 साल के थे जब उनकी माँ अपनी एक दोस्त के संपर्क में आई जिनकी बेटी दृष्टिबाधित थी। मांओं ने आपस में बात की और आनंद से पूछा कि क्या वे उससे शादी करना चाहते हैं। उन्होंने जवाब दिया, "हाँ, अगर वह मुझे खाना बनाकर खिलाने में सक्षम हो तो।" यह पता चला कि जिस व्यक्ति से उनका सबसे गहरा लगाव था, वह उनकी पत्नी अंजलि थी, जो अब 41 वर्ष की हैं। वे दोनों हमेशा साथ रहते हैं, उन्हें अलग नहीं किया जा सकता।
 
जब वे छोटे थे तब उन्होंने एक काम – साइकिल की मरम्मत - सीखा था, और आगे चलकर यह उनके लिये कारगर सिद्ध हुआ। उनके पड़ोस में एक साइकिल की दुकान थी जहाँ उन्होंने साइकिल का काम करना सीखा और वे वहाँ काम करके कुछ पैसे कमा लेते थे जिससे परिवार का आर्थिक बोझ कम हो जाता। उनका कहना है कि अब तक वे इतने एक्सपर्ट हो गये हैं कि किसी भी गड़बड़ी को पहचान कर उसे ठीक कर सकते हैं। वे एक साइकिल मरम्मत की दुकान में काम करटे हैं और वहाँ जो पैसा वह कमाटे हैं, वह उनकी प्रति माह लगभग ₹500 की विकलांगता पेंशन के साथ मिलकर उनकी आय हो जाती है, जिससे वे अंजलि और अपने बच्चों अनुष्का और विनीत का भरण-पोषण करते हैं।
 
साइकिल की दुकान का एक कर्मचारी ही था जो दंपति को उनके बच्चों को स्थानीय सरकारी स्कूल में दाखिला दिलाने के लिये ले गया। दोनों बच्चे छठी कक्षा में हैं: विनीत सीधे पहली कक्षा में गया और इसलिए वह अपनी बहन के साथ उसी कक्षा में है जो उससे एक साल बड़ी है। अंजलि कहती हैं, ''जिस दिन से उन्हें दाखिला मिला है, उस दिन से हम कभी स्कूल नहीं गये हैं।'' "उन्हें मुफ़्त भोजन और मुफ़्त वर्दी मिलती है।" साथ ही, पड़ोस की एक युवा लड़की अपने खाली समय में उन्हें पढ़ाती है।
 
12 वर्षीय अनुष्का ने हमें बताया कि स्कूल में उसे अंग्रेजी और हिंदी विषय पसंद हैं क्योंकि वे "आसान" हैं लेकिन उसे विज्ञान कठिन लगता है। अगर उसे अपना डॉक्टर बनने का सपना पूरा करना है तो उसे निश्चित रूप से विज्ञान में कोचिंग की आवश्यकता होगी। 15 अगस्त को विनीत स्कूल से वापस आया तब हमारी उससे बात हुई। उसने बताया, "आज हमने स्कूल में झंडा फहराया था," और मासूमियत से कहा, "मेरी माँ कभी स्कूल नहीं गईं।"
 
अंजलि का अपने माता-पिता से संपर्क टूट गया है। वे कहती हैं, ''हमारे पास पश्चिम बंगाल जाकर उनसे मिलने के लिये पैसे नहीं हैं।'' वे एक रिश्तेदार के घर में बिना किराये के रहते हैं। वे हमें बताते हैं, ''हमें नहीं पता कि हमें यहाँ कितने समय तक रहने की इजाजत मिलेगी।'' हमें यह आभास हुआ कि वे चिंता और असुरक्षा की स्थिति में रहते हैं, जिससे वे एक-दूसरे पर अधिक निर्भर हो जाते हैं क्योंकि उन्हें अपने परिवारों से कोई समर्थन नहीं मिलता है। दरअसल, अंजलि का कहना है कि उनके दोनों बच्चे पढ़ाई में अच्छे हैं और उन्हें उम्मीद है कि कोई उनकी शिक्षा का खर्च उठाएगा, लेकिन दंपति को डर है कि वे बाद में जीवन में उनकी देखभाल नहीं कर पाएंगे। "चूंकि हमारे अपने परिवार के सदस्यों ने हमारी विकलांगता के कारण हमें छोड़ दिया है, तो क्या हमारे बच्चे भी ऐसा ही करेंगे?" वो सोचते रहते हैं।


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विक्की रॉय