कला ने आलोक कुमार घोष (56) और उनकी पत्नी कीर्ति घोष (55) को तब जोड़ा, जब वे विश्व भारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन में सहपाठी थे। लेकिन कला की जड़ें आलोक में तब से गहरी थीं जब वे पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में बच्चे के रूप में पल-बढ़ रहे थे।
आलोक, जिनका दाहिना पैर छह महीने की उम्र में पोलियो से प्रभावित हो गया था, एक किसान परिवार से थे। उनके घर के सामने एक बड़ा आँगन था। जब आलोक लगभग चार साल के थे, तो हर सुबह उसकी माँ मिलन घोष उन्हें उठाकर आँगन में बिठा देती थीं, और खुद वे अपने कामों में लगी रहती थीं। आलोक नारियल के पत्तों से बनी झाड़ू से एक तीली तोड़ते और मिट्टी में चित्र बनाने लगते। एक चित्र बनाने के बाद वे रेंगकर आगे बढ़ते और अगला चित्र बनाने लगते। जब उनकी माँ उन्हें नहलाने और दोपहर के भोजन के लिए लेने आतीं, तब तक वे आँगन के बीच में पहुँच जाते थे। दोपहर के भोजन के बाद वे उन्हें ठीक उसी जगह पर बिठा देती थीं जहाँ ले जाती थीं, और शाम तक पूरा आँगन चित्रों से भर जाता था। वे बताते हैं, “मैं सुबह से लेकर शाम तक चित्र बनाता रहता था।” “हमारे पास आजकल के बच्चों की तरह फैंसी खिलौने नहीं थे। आँगन ही मेरी दुनिया थी। आप इसे मेरे जीवन की ड्राइंग कॉपी कह सकते हैं।”
एक मास्टर उनके सात भाई-बहनों को पढ़ाने के लिए घर आते थे। माँ ने उन्हें साथ बैठाकर सीखने के लिए कहा, लेकिन पढ़ाई-लिखाई करने के बाद वे फिर से आँगन में चित्र बनाने लग जाते। जब वे लगभग 12 साल का थे, एक दिन उन्हें आभास हुआ: “मुझे नहीं पता कि यह भगवान की आवाज़ थी या मेरी अंतरात्मा की आवाज़, लेकिन किसी ने मुझसे कहा, उठो, उठो नहीं तो तुम इस मिट्टी का हिस्सा बन जाओगे।” अपने पैरों पर खड़े होने के लिए दृढ़ निश्चयी आलोक ने हर दिन अभ्यास किया, बार-बार गिरते रहे लेकिन डेट रहे। उनके परिवार ने उन्हें बाँस की बैसाखियाँ दिलवाईं और बाद में इलाज के लिए उन्हें कोलकाता में डॉक्टरों के पास ले गए, आखिरकार धीरे-धीरे उन्होंने बिना सहारे के चलना शुरू कर दिया।
आलोक के माता-पिता ने उन्हें पास के स्कूल में दाखिला दिलाने का फैसला किया, लेकिन वे क्लास में नहीं जाते थे, इसलिए उन्होंने घर पर ही एक टीचर रख लिया। दसवीं कक्षा पास करने के बाद उन्होंने शांतिनिकेतन जाने का फैसला किया, क्योंकि जो भी घर आता और उनकी कला को देखता, वो उन्हें आगे की पढ़ाई के लिए वहीं जाने के लिए कहता। उनके माता-पिता अपने किशोर बच्चे को, जिसने अभी-अभी स्वतंत्र रूप से चलना सीखा था, अकेले इतने लंबे सफर पर भेजना नहीं चाहते थे, लेकिन वे दृढ़ निश्चयी थे। पहली बार जब उन्होंने आवेदन किया तो उन्हें अस्वीकार कर दिया गया, क्योंकि उन्होंने 12वीं कक्षा पास नहीं की थी। दूसरी बार वे भाग्यशाली रहे।
आलोक याद करते हैं, "शांतिनिकेतन में मैंने अपने कुछ बेहतरीन पल बिताए हैं"। "मेरे पास शानदार दोस्त थे, जिन्होंने मेरी बहुत मदद की और वे मेरी ताकत थे।" उन्होंने वहाँ सात साल बिताए, ललित कला में स्नातक की डिग्री और फिर लकड़ी और पत्थर की मूर्तिकला में विशेषज्ञता हासिल करते हुए मास्टर्स की डिग्री हासिल की ("हालाँकि मेरे पैर कमज़ोर थे, लेकिन मेरे हाथों में बहुत ताकत थी")। शांतिनिकेतन में ही उनकी मुलाकात कीर्ति से भी हुई। उन दोनों ने एक ही विशेषज्ञता चुनी थी और एक ही स्टूडियो – मूर्तिकला का - साझा किया।
छत्तीसगढ़ की मूल निवासी कीर्ति ने खैरागढ़ से ललित कला में बी.ए. किया। वे अपने बैच में अकेली लड़की थीं जिसने मूर्तिकला में विशेषज्ञता हासिल करने का विकल्प चुना - उनके टीचरों ने उनसे कहा कि यह महिलाओं के लिए कठिन है क्योंकि इसमें बहुत भारी वज़न उठाना पड़ता है, लेकिन उन्हें यह पसंद था। उनके पिता ने सुनिश्चित किया कि उनके चारों बच्चे कला में रुचि रखें। कीर्ति के ग्रेजुएट होने के बाद उन्होंने उसे शांतिनिकेतन में आवेदन करने के लिए प्रोत्साहित किया क्योंकि यह मूर्तिकला में मास्टर डिग्री प्रदान करने वाला एक प्रमुख संस्थान है, लेकिन पहले तो वे झिझकीं: "मैं अपने आराम के दायरे से बाहर जाने के लिए तैयार नहीं थी। मैंने अपने पिता से कहा, मैं वहाँ कैसे जी पाउंगी, मैं शाकाहारी हूँ और वे मछली खाते हैं, और वे बंगाली बोलते हैं जो मुझे आती नहीं!"
स्टूडियो-पार्टनर होने का मतलब था कि आलोक और कीर्ति को एक साथ मिलकर काम करना था। शुरू में वे बात नहीं कर पाते थे क्योंकि आलोक हिंदी नहीं बोलते थे लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने एक-दूसरे को अपनी मातृभाषाएं सिखाईं। दूसरे वर्ष में उन्हें एहसास हुआ कि वे एक-दूसरे से प्यार करते हैं लेकिन इसे दिखाने में बहुत शर्मीले थे। कीर्ति को याद है कि कैसे उनके अंतिम वर्ष में, एक रात जब वे डिनर से लौट रहे थे, वे पैदल और आलोक साइकिल पर थे, उन्होंने कीर्ति से पूछा कि भविष्य के लिए उनका क्या प्लान है। कीर्ति ने कहा, नौकरी ढूँढ़ना, शायद अपनी कला की प्रदर्शनी लगाना। और फिर आलोक ने पूछा कि क्या वे जीवन साथी बन सकते हैं। उन्होंने कहा कि वे ऐसा कर सकते हैं, लेकिन उनके माता-पिता अपनी जातिगत भिन्नताओं के कारण इसके लिए सहमत नहीं होंगे, और उनके पैर की समस्या की बात तो छोड़ ही दो।
जैसा कि कीर्ति अनुमान लगाया था, उनके माता-पिता सहमत नहीं थे, लेकिन आलोक के माता-पिता प्रभात और मिलन घोष ने कीर्ति का अपने बच्चे की तरह स्वागत किया। वे कहती हैं, "मेरे ससुराल वालों ने हमेशा मुझे बेटी की तरह माना है।" "जब मेरी गर्भावस्था के दौरान जटिलताएं पैदा हुईं, तो मैं उनके साथ रही और उन्होंने मेरी बहुत अच्छी देखभाल की।" जब कीर्ति गर्भवती थी, तो उनके ससुर प्रभात उन्हें महाभारत और रामायण की कहानियाँ पढ़कर सुनाते थे। वे भगवान कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न पर मोहित थीं और उन्होंने तय किया कि अगर उनका बेटा हुआ तो वे उसका नाम प्रद्युम्न रखेंगी।
1996 में आलोक ग्वालियर के सिंधिया स्कूल में कला शिक्षक के रूप में जुड़े। 1997 में उनकी शादी के बाद कीर्ति भी स्कूल में कला की शिक्षा देने लगीं। 1999 में प्रद्युम्न के जन्म के बाद उन्होंने छुट्टी ले ली और जब वो बड़ा हो गया तो फिर से काम करने लगीं। उनके माता-पिता अपने पोते से दूर नहीं रह पाए और टूटे हुए रिश्ते फिर से जुड़ गए। प्रद्युम्न मर्चेंट नेवी में हैं और अब न्यूजीलैंड में तैनात है।
दंपत्ति साथ स्कूल जाते हैं और साथ घर लौटते हैं। सप्ताहांत में आलोक को बागवानी, लकड़ी की नक्काशी, खाना बनाना और घर के कामों में मदद करना पसंद है। कीर्ति उनके धैर्य के लिए उनकी प्रशंसा करती हैं और कहती हैं: "वे घर के हर काम में मेरी मदद करते हैं और मैं जो भी करती हूँ उसमें मानसिक और शारीरिक रूप से मेरा साथ देते हैं।"